बिहार में कांग्रेस की ‘कैप्टन’ लड़ाई: राहुल रील में लीडर हैं, ग्राउंड पर कौन?

आलोक सिंह
आलोक सिंह

जब देश भर में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ रील्स चल रही थीं, बिहार के गांवों में लोग पूछ रहे थे – जात कौन की है और रोजगार कब मिलेगा?

बिहार की राजनीति कभी लहरों पर नहीं चलती, यहां की राजनीति अपने गड्ढों, चालों और जातीय संतुलनों की भाषा समझती है। और यही भाषा कांग्रेस भूलती जा रही है।

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कांग्रेस का आंतरिक भ्रम:

  • राहुल गांधी के सोशल मीडिया-प्रधान नेतृत्व मॉडल की बिहार में पकड़ नहीं बन रही

  • स्थानीय कार्यकर्ता और नेता खुद को अनसुना महसूस कर रहे हैं

  • RJD के साथ गठबंधन में कांग्रेस का वजूद दिन-ब-दिन ‘Symbolic Partner’ बन रहा है

राहुल बनाम ज़मीनी हकीकत:

  • सोशल मीडिया में राहुल गांधी को संविधान रक्षक और युवाओं की आवाज़ बताया जा रहा है

  • लेकिन बिहार में चुनाव चौपाल, पंचायत और जातीय समीकरण से जीते जाते हैं

  • गांवों में लोग ‘रील’ नहीं, ‘रोटी’ और ‘रोजगार’ की बात करते हैं

पर्दे के पीछे की खींचतान:

  • कई वरिष्ठ नेता दिल्ली नेतृत्व से नाराज़

  • पप्पू यादव, अशोक चौधरी जैसे नामों पर अंदरखाने चर्चाएं तेज़

  • कुछ धड़े चाहते हैं कांग्रेस तेजस्वी यादव को फॉलो न करे, बल्कि खुद नेतृत्व की भूमिका में आए

प्रियंका गांधी विकल्प या भ्रम?

  • प्रियंका गांधी को ‘महिला मतदाता’ और ‘मुस्लिम वर्ग’ में कुछ समर्थन

  • यूपी में असफल रहने के बावजूद बिहार में नई उम्मीद के रूप में देखा जा रहा

  • लेकिन क्या कांग्रेस अंदर से तैयार है प्रियंका को Bihar Experiment में झोंकने के लिए?

असली संकट: खुद कांग्रेस ही है!

  • कांग्रेस न RJD के सामने खुद को मजबूती से रख पा रही है, न भाजपा के खिलाफ लड़ने को तैयार

  • न संगठन तैयार, न संसाधन, न रणनीति

  • पार्टी के कार्यकर्ता तक पूछने लगे हैं, “हम किसके लिए लड़ें?”

बिहार में कांग्रेस का असली संकट भाजपा, JDU या RJD नहीं है। असली लड़ाई पार्टी के अंदर है—लीडरशिप, सम्मान और पहचान की।
अगर राहुल गांधी सच में ‘कैप्टन’ बनना चाहते हैं, तो उन्हें इंस्टाग्राम से बाहर आकर दरभंगा, आरा और गया की गलियों में उतरना होगा।
वरना अगला चुनाव पूछेगा नहीं, कहेगा –
“कांग्रेस? वो कभी हुआ करती थी…”

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